विभीषण राम की शरण में
विभीषण राम की शरण में -
लंका - दहन से रावण चिंतित हो गया। सोचने लगा - शत्रु साधारण मनुष्य नहीं है। उस को पराजित करने के लिए भारी तैयारी करनी पड़ेगी। यह विचार करने के लिए उसने अपने सभासदों की बैठक बुलवाएं। रावण की पत्नी रानी मंदोदरी , भाई कुंभकरण और विभीषण भी बैठक में उपस्थित हुए। सब ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
रानी मंदोदरी हनुमान के उत्पात से बहुत भयभीत थी। उसने पति को समझाया की ,'' दूसरे की बहन , मां और पत्नी का हरण करना पाप है। आप सीता को आदर सहित वापस कर दीजिए। '' रावण को पत्नी की बात अच्छी ना लगी। उसे अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था। कुंभकर्ण ने कहा -'' आप बड़े भाई हैं। जो चाहे कीजिए पर दूसरे की पत्नी को छीन कर लाना अधर्म है। मेरे विचार में श्री राम से व्यर्थ में युद्ध मोल लेना चतुराई नहीं है। पर यदि आप युद्ध करेंगे तो मैं आपका साथ दूंगा। ''
विभीषण कहने लगा - ''आप बड़े भाई हैं। पिता के समान है। मैं आपका आदर करता हूं। पर आप जो कर रहे हैं ,वह अधर्म है। मैं आपके इस धर्म कार्य में आपका साथ ना दूंगा।''
विभीषण की बात सुनकर रावण को क्रोध आ गया। उसने विभीषण को लात मारकर कहा -''तू भ्रातृद्रोही है। तू लंका से निकल जा और राम के ही पास जा। ''
बड़े भाई से अपमानित होने पर विभीषण अत्यंत दुखी हुआ। वह समझ गया कि रावण की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। उसका मंत्री मल्लवान था। उसने उसको राम की शरण में जाने को कहा। अतः विभीषण अपने मंत्रियों के साथ राम की शरण में आ गया। कुछ सेनापतियों ने विभीषण पर संदेश किया। कहा -'' यह रावण का भाई है। गुप्तचर बनकर हमारे दल का भेद लेने आया है। इसे कैद कर लेना चाहिए। ''इस पर राम ने कहा - यह शरणागत है। शरणागत को शरण देना ही वीरों का धर्म है। ''यह कहकर श्रीराम ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया। समुद्र जल से उसका अभिषेक करके कहा -'' आज से लंका के राजा तुम हुए। ''
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