भरत राम को मनाने पहुंचे

 

भरत राम को मनाने पहुंचे -


खाली रथ लेकर सुमंत अयोध्या पहुंचे। उन्होंने राजा दशरथ को राम के वन गमन का समाचार सुनाया। शोक संतप्त राजा दशरथ 'हा राम ! हा राम ! कहते हुए विलाप करने लगे। दोनों रानियां भी विलाप करने लगी। केवल कैकयी को कोई दुःख ना हुआ। रात्रि में ' हा राम ! कहते हुए राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए। अयोध्या के नर - नारियों के क्रंदन से फिर आकाश गूँज उठा। गुरु वशिष्ट जी ने भरत एवं शत्रुघ्न को बुलवाने के लिए दूत दौड़ा दिए। तब तक के लिए राजा दशरथ के शव को सुरक्षित रखने के लिए तेल के कुंड में रख दिया गया। भरत अयोध्या पहुंचे। उन्हें राम के वन - गमन एवं पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर अत्यंत दुःख हुआ। उन्होंने इस बुरे काम के लिए अपनी माँ को बहुत बुरा - भला कहा। शत्रुघ्न ने क्रोध में भरकर , मंथरा दासी के कूबड़ में लात मारीऔर उसे राज महल से निकाल दिया। भरत ने पिता का दाह - संस्कार किया। फिर बड़े भाई राम को वापस लौटा लाने के लिए चित्रकूट को प्रस्थान किया। उन्होंने पिता की गद्दी पर बैठना स्वीकार नहीं किया। भरत के साथ ही अनेक प्रजाजनो ने भी चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में निषादराज गुह से उन्हें बड़े भाई का समाचार मिला। भरत , निषादराज गुह के साथ राम से मिलने चले। भाई के प्रेम में , उनको अपने शरीर की सुध - बुध भी न रही। लक्ष्मण ने सोचा कि शायद भरत सेना लेकर राम को कैद करने आ रहे है। क्रोध में उन्होंने भरत को मारने के लिए धनुष उठा लिया। पर तभी लक्ष्मण ने देखा कि तपस्वी वेश में भरत राम के चरणों में गिर पड़े हैं। राम ने अत्यंत प्रेम से भरत को उठाकर छाती से लगा लिया



दोनों भाइयों का प्रेम देखकर , सभी का ह्रदय प्रेम से भर आया। सबकी आँखों से आनंद व प्रेम के आंसू बहने लगे। तब राम ने पिता का श्राद्ध किया। भरत ने राम से अयोध्या चलने का हठ किया। लेकिन राम माने। उन्होंने भरत को अपने उद्देश्य के बारे में समझाया। तब दो प्रतिज्ञाएं की। एक - सिंहासन पर राम की पादुकाये रखकर उनकी पूजा करूँगा , दूसरी - चौदह वर्ष बाद भी राम के न लौटने पर प्राण त्याग दूंगा। दूसरे दिन राम ने भरत को विदा किया।

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