मंथरा का विष
मंथरा का विष -
भरत के मामा युधाजित थे। वे रामचंद्र जी के विवाह में आये थे। लौटते समय भरत और सत्रुध्न भी मामा के साथ अपने ननिहाल केकय देश चले गये। अयोध्या में राम-लक्ष्मण माता-पिता की सेवा में लगे रहते थे। श्रीराम के उत्तम शील ऐवं म्रदुल व्यवहार के कारण प्रजाजन भी उनसे बहुत प्रसन्न थे। राजा दशरथ बूढ़े हो चले थे। उन्होंने श्रीराम को युवराज पद देने का विचार किया। गुरु वशिस्ठ ने सुबह मुहूर्त तय कर दिया। प्रजा में प्र्सनता की लहर दौड़ गई। तीनो माताओ को भी आनंद हुआ। माता केकयी की एक दासी थी। उसका नाम मंथरा था। कुबड़ी दासी स्वभाव से कुटिल थी। उसे यह अच्छा न लगा उसके मन में ईष्र्या जाग उठी। मंथरा ने रानी केकयी के कान भरने शुरू किये। उसने केकयी से कहा कि युवराज पद भरत को मिलना चाहिए।
केकयी पर इस कुमंत्रणा का बुरा प्रभाव पड़ा। वह क्रोधित हो गई और कोप भवन में जाकर लेट गई। सारे जेवर इधर उधर फेक दिए। राजा दशरथ जब महल में पहुंचे तब उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। किसी समय राजा दशरथ ने कैकयी को दो वर देने का वचन दिया था। अब वह उन वरो को मांगने लगी। उसने पहला वर माँगा राम को चौदह वर्ष का वनवास और दूसरा वर माँगा भरत के लिए युवराज पद। राजा दशरथ को यह सुनकर इतना दुःख हुआ कि वे बेहोश हो गए। किन्तु यह वचन हार गए थे। सारी प्रजा को बड़ा दुःख हुआ किन्तु श्रीराम को तनिक भी दुःख न हुआ। वे वन जाने की तैयारी करने लगे। पिता की वचनो की रक्षा करना ही, उन्होंने अपना कर्तव्य समझा।
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